Menu
blogid : 7066 postid : 10

एक लेक्चर ऐसा भी

मेरी आवाज
मेरी आवाज
  • 14 Posts
  • 26 Comments

शिवेष सिंह राना
शुक्रवार का दिन था। सुबह के नौ बजे मैं काॅलेज निकलने वाला ही था कि मेरे दोस्त का फोन आ गया। उसे अपनी चेक लगाने स्वरूप नगर जाना था, और उसे चाहिए थी मेरी सहायता। क्योेंकि उसके पास गाड़ी नहीं थी।
मैं मोटर साइकिल न होने का दर्द भली-भांति जानता हंू और दीपावली का त्यौहार भी निकट था इसलिए उसकी आवश्यकता को वरीयता देते हुए मै बिना नाश्ता किए ही घर से निकल पड़ा। उसे घर से रिसीव कर इंडियन बैंक गया। बैंक जाते समय चिंता सता रही थी कि 11 बजे वाली राजनीतिक पत्रकारिता की क्लास में रह भी पाऊंगा या वो भी कोरल वाली क्लास की तरह छूट जाएगी।
खैर फ्रूट चाट खाने के बाद हम काॅलेज के लिए चल दिए। गाड़ी चलाते समय मुझे अपना प्रिय रुमाल बैंक में ही छूट जाने का गम सता रहा था।
काॅलेज पहुंचकर गाड़ी स्टैण्ड में खड़ी करते ही हमारे डायरेक्टर श्रीमान ‘एस.पी. त्रिपाठी’ जी आ गए। देर से आने का कारण पूछते हुए उन्होंने यागनिक सर को माफीनामा देने को कहा। तब तक सहपाठी जसपाल भी आ चुका था। उसे कुछ जरूरी कागजात फैक्स करने थे जिनका वर्णन उचित न होगा। उसके पास मौजूद मैटर की टाइप सेटिंग में गड़बड़ी होने के कारण वह कम्प्यूटर लैब में टाइपिंग कर रहा था। तभी लैब के गेट से आवाज आई ‘‘आप लोग लेक्चर अटेंड नहीं करेंगे क्या? जाइये आॅडीटोरियम में पहुंचिये।’’ ये आवाज थी नवोदिता पाण्डेय मैम की। थोड़ी सी हिचकिचाहट और न चाहते हुए लैब छोड़ने के दबाव पर हम आॅडीटोरियम को चल दिए।
वाॅशरूम में जसपाल अपने कम बालों को इस प्रकार सेट करने लगा जिससे उसके सिर पर कम हो रहे बाल समझ न आएं। मैने अभी कल ही अपने दोस्त के मुंह से सुना था कि शीशे में अपनी शक्ल ज्यादा देखने से चेहरे की चमक कम हो जाती है, तो जाहिर है दो-चार दिनों तक तो याद रहेगा ही न? इसी के चलते मैने झट-पट अपनी आंखो में आई गन्दगी को साफ की और आॅडीटोरियम की ओर चल दिया। जसपाल आगे था और मैं पीछे।
उसके अपनी ही एक अलग स्टाइल में चलने कोे पीछे से देखकर मैं मुस्कुरा रहा था, तभी मेरी नजर एक गुलाब के फूल पर जा टिक गई। फूल पर पड़ रही सूरज की रोशनी उसकी सुंदरता में चार चांद लगा रही थी। एक घड़ी मैं ठहर सा गया। लगा मानों सारी दुनियां इसी फूल में समाई है, और मैं उसमें विचरण के ख्वाब बुनने लगा। इतने में जसपाल ने कहा चलो बे। मैं चल तो दिया लेकिन मैं लगातार सोचता रहा कि वो फूल आखिर क्यों मुझो देखकर मुस्कुरा रहा था? कहीं वो पेड़ से टूटकर मेरे हाथों में आना तो नहीं चाहता? या फिर सभी को अपनी खूबसूरती का कायल बना लेता है। इतने में माॅस काॅम तृतीय वर्ष के प्रिंट के सभी छात्रों ने वाॅशरूम जाने की फरमाइश कर दी । एक घड़ी सोचा कि अभी तो आए हैं, वहां फिर से जाना पड़ेगा अजीब मजबूरी है।
लेकिन उस फूल की याद ने मुझे वाॅशरूम जाने पर मजबूर कर दिया। जब सभी दोस्त वाॅश रूम में फ्रेश होने में मशगूल थे, मैं त्रिपाठी सर और नीरन श्रीवास्तव सर के पास खड़ा उस फूल को टकटकी लगाकर देख रहा था। एक बारगी तो लगा उसे तोड़कर अपना बना लूं। आखिर ऐसा क्या था उस फूल में जो आज तक मैं किसी और फूल में तलाश न सका।
मैने उस फूल को तोड़ने का प्रयास भी किया, लेकिन न जाने क्यों पौधे पर हाथ सहलाकर मैने अपने हाथ पीछे खींच लिए। मैं असमंजस की स्थिति में ही वाॅशरूम से बाहर आ रहे बाल संवारते, हाथ-मुंह पोछते और तरोताजा लग रहेे भानू, अभिषेक, राघवेंद्र, जसपाल के साथ आॅडीटोरियम चल दिया।
सीट पर बैठकर भी हम लोग कहां चुप बैठने वाले थे। हंसी-ठिठोली और ब्लूटूथ से एप्लीकेशन और गाने के तबादले मोबाइल पर चालू हो गए। इसी बीच मुख्य अतिथि प्रवीन प्रियदर्शी हमारे बीच थे। इससे पहले आॅडीटोरियम आते वक्त एक अनजान चेहरे को देखकर मैने नवोदिता मैम से मुख्य अतिथि के बारे में चुपचाप पूछा तो उन्होंने बताया ‘‘नहीं ये नहीं है’’ और फिर एक भीनी सी मुस्कुराहट के साथ हाथ से इशारा कर मुझे बैठने के लिए कहा। श्रीमान प्रियदर्शी जी के सम्मान के बाद अब बारी थी गेस्ट लेक्चर की, जो जाहिर है प्रियदर्शी जी ही देने वाले थे। उन्होंने हमें ‘पाॅलिटिक्स आॅफ अर्बन रिफार्म्स इन इण्डिया’ विषय पर प्रोजेक्टर के माध्यम से बताना शुरू किया।
बीच-बीच में हर बार के लेक्चर की तरह स्टूडेंट्स की शरारतें चालू थीं। कोई रिंगटोन बजाकर बंद कर देता तो कोई अजीब सी मैसेज की धुन से बोरिंग से लग रहे लेक्चर में जान डाल देता । हद तो तब हो गई जब पोर्डियम के सामने की ओर से किसी का फोन लगातार रिंग करता रहा और किसी ने उसे आॅफ करने की जहमत नहीं उठाई शायद वहीं से अनुशासन प्रिय और स्टूडेंट्स की आंखो में खटकने वाली ‘रितुमा मैम’ का पारा हाई हो गया। जिसका खामियाजा म ुझे ओर मेरे कुछ जूनियर्स को लेक्चर के बाद चुकाना पड़ा। स्टूडेंट्स के गैर जिम्मेदाराना व्यवहार से बिफरी मैम ने अपनी निगह बानी से जिन स्टूडेंट्स को लेक्चर के दौरान बाते करते , हंसते पकड़ा था उन्हें पोडियम के पास आने को कहा। मै तो शायद इसलिए फंस गया क्योंकि मैंने लेक्चर खत्म होने के बाद प्रियदर्शी जी के जाते ही जशपाल के किसी जुमले पर न रुक पाने वाली हंसी के ताल छेड़ दिए थे।
पोडियम के पास बुलाए गए सभी स्टूडेंट्स को बतौर बेहतरीन स्पीकर्स होने का खिताब देते हुए हमारी आदरणीय मैम ने पोडियम से बस पांच-पांच मिनट बोलने का हुक्म देते हुए कहा आखिर इन सब में ऐसा है क्या? जो ये स्टूडेंट्स लेक्चर पर ध्यान नहीं दे रहे थे और खुद में व्यस्त थे। मेरे साथ तो कुछ एैसा था कि अंग्रजी पर अच्छी पकड़ न होनेे के कारण मैं पूरे ध्यान से उनके एक-एक शब्द को पकडने और उसे अपने दिमाग में बसाकर समझने में तल्लीन था, बाकी का मुझे पता नहीं? ये बात दीगर है कि ये लेक्चर अब तक का सबसे पकाऊ लेक्चर था। स्टेज में बुलाए गए स्पीकर्स में सेकेण्ड इयर के राहुल को विशेष रूप सेे ‘अश्रिता मैम’ के कई बार कहने पर भी रितुमा मैम द्वारा ध्यान न दिए जाने पर थक-हारकर अश्रिता मैम को ही बुलाना पड़ा।
सभी बेस्ट स्पीकर्स के खिताब से नवाजे गए स्टूडेंट्स हाल-बेहाल हुए जा रहे थे, कोई बगलें झांक रहा था तो कोई सफाई देने में जुटा था कि मैम हमने बात कहां की? माथे पर सिकने बढ़ने के साथ दिल की धड़कनों की रफ्तार में वृद्धि स्वाभाविकता के साथ हो रही थी। मुझसे जूनियर एक लड़की के ‘ मैं तो नहीं बोलंूगी’ कहते ही हाल ही में एडवरटाइजिंग पढ़ाने के लिए काॅलेज में नियुक्त अश्रिता मैम भड़क उठीं, बोलीं ‘एटीट्यूड तो देखिए’। शायद उनके मन में था ‘‘ चोरी की चोरी ऊपर से सीनाजोरी’’। मजे की बात तो यह है कि लेक्चर के बाद तक गला खराब होने की वजह से रितुमा मैम को बोलने में हो रही तकलीफ स्टूडेंट्स को हर लेक्चर के बाद मिलने वाली ’टाॅनिक’ रूपी डांट के समय न जाने कहां गुम हो गई थी।
एक जूनियर लड़की के पोडियम में साॅरी बोलने पर रितुमा मैम की प्रतिक्रिया थी मैं कहां नाराज हूं? जहां तक मैं जानता हूं गल्ती न होने पर सार्वजनिक रूप से साॅरी बोलना कितना कठिन होता है, ये बात रितुमा मैम को अच्छी तरह पता है। लेकिन उस जूनियर के बारे में मुझे नहीं पता कि वह बात कर रही थी या नहीं। ये बात और है कि पोडियम पर जाते ही उसका गला ‘रूंध’ सा गया था।
खैर अब मेरे बोलने की बारी थी । शायद पोडियम पर पहुंचकर ‘फील फ्री’ होने का एहसास पहली बार हुआ था मुझे। सामने कई फैकल्टी मेंबर्स के सामने पूरा माॅस काम मुझे सुनने के लिए एकांत चित्त बैठा था। मैने सभी स्टूडेंट्स की ओर इशारा करते हुए कहा ‘आप सबने मुझे यहां(पोडियम) आकर बोलने का मौका दिया इसके लिए आप सभी का धन्यवाद। मेरा इतना कहना हुआ था कि सभी स्टूडेंट्स के माथे पर आया पसीना गायब होता नजर आया। सभी स्टूडेंट्स टेंशन भूल हंसने लगे यहां तक की रितुमा मैम भी खुद को हंसने से रोक नहीं पाईं।
वाकई सुखद था कि जितनी तालियां और स्टूडेंट्स का प्रेम माननीय प्रियदर्शी जी बीते डेढ घण्टे में नहीं पा सके, उतनी मेरे एक वाक्य पर मुझे मिल गई। मैने आगे कहा जब हम गलती करते हैं तब सजा नहीं मिलती, कष्ट होता है जब बिना गल्ती के सजा भुगतनी पड़ती है। मेरा इतना कहते ही रितुमा मैम ने कहा ‘‘नेता जी आए हैं सुन लीजिए, दोबारा ऐसा मौका नहीं मिलेगा।’’ मैम की टिप्पणी का ज्यों ही मैने ‘नेता जी बनाने के लिए धन्यवाद’ कह उत्तर दिया। पूरा आॅडीटोरियम तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज गया। कोई स्टूडेंट वाह-वाह कर रहा था तो कोई क्या बात है। मेरे एक करीबी मित्र ने कहा बंदे की बात में दम है मुझे पूरा भरोसा था कि ये कुछ ऐसा ही करने वाला है।
मैं बहुत कुछ कहना चाहता था लेकिन पांच मिनट का समय एक मिनट में तब्दील हो गया।
मुझे रितुमा मैम ने बैठने के लिए कहा लेकिन मैं खुद को रोक पाने की स्थिति में नहीं था। सीने में चुभन थी कि तीन साल होने को आ गए किसी शिक्षक से अभद्र व्यवहार तो दूर उनके सम्मान में कोई कमी नहीं रखी। जिसका आज ये सिला मिल रहा है मुझको।
खैर ! हंसना गुनाह है हंसा मत करिए कह मैं स्टूडेंट्स को अपनी राय देकर चला आया। रितुमा मैम भी कहां चूकने वाली थीं कमेंट पास कर ही दिया ‘‘हंसने के लिए लंच का समय है तब हंसा करिए।’’
जेहन में एक सवाल उठता है कि हंसी की कोई भी बात हो उसे पोटली में बांध लो या फिर कहीं नोट कर लो, जब लंच होगा तब हंसेगे। क्या ये संभव है? शायद नहीं। बाद में सभी स्टूडेंट्स ने मैम विशेष एण्ड आॅल कोे साॅरी कह सारी बुराई का जिम्मा मेरे ऊपर लाद दिया। लेकिन एक पुरानी कहावत है ’’जो जितना बदनाम हुआ है उसका उतना नाम हुआ है।’’
क्लास को जाते समय मैनें गुस्से से लाल हुई जा रही रितुमा मैम के चरण छू उनका आशीर्वाद लेना चाहा तो दो कदम पीछे हटी मैम ने कहा ‘‘चलिए-चलिए जाइये, अब क्या रह गया।’’
शायद उन्हंे और मेरे साथियों को लगा हो कि ‘मैं उनके जले पर नमक छिड़क रहा हूं।’ लेकिन मुझे अपनी गलती का एहसास हो गया था। मुझे गुरू और शिष्य की गरिमा को संजोकर रखना चाहिए।
बचपन से सुनता आ रहा हंू ‘क्षमा बड़न को चाहिए,छोटन को उत्पात।’ रितुमा मैम दिल की साफ थीं, हमें हमेशा अच्छा बनाने की कोशिश में खुद बुरी बनती थीं या ये कह लें स्टूडेंट्स से बुराई लेने का ‘कार्य विशेष’ उनके बाह्य आडम्बरी व्यक्तित्व के कारण उन्हें सौंपा जाता था। खैर ये काॅलेज का अपना अंदरूनी मसला है, अमा हम होते ही कौन हैं? इस विषय पर मैनें फेसबुक पर भी उसी दिन अपने विचार रखे थे। मुझे विश्वास ही नहीं बल्कि पूरा भरोसा है मुझे अपना छोटा भाई समझ मेरी बचकानी हरकत को माफ कर देंगी।
मैं बचपन से ही ‘‘जो बीत गया सो बीत गया, तकदीर का शिकवा कौन करे ।
जो तीर कमान से निकल गया उस तीर का पीछा कौन करे’’ के सिद्धांत पर चला आ रहा था, लेकिन उस समय मैं अन्र्तद्वंद के कारण पता नहीं क्यों खुद को लाचार महसूस कर रहा था।
क्या करूं मैं ऐसा ही हूं।

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply