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बोधकथा

मेरी आवाज
मेरी आवाज
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एक बार किसी नगर से बहुत से धनवान लोग अपने वाहनों से कहीं दूर तीर्थ यात्रा के लिए जा रहे थे। उसी बस्ती में एक अति निर्धन व्यक्ति भी रहता था। अपंगता के कारण वह चलने-फिरने में लाचार था।
वह बड़ी हरसत भरी निगाहों से उन तीर्थ यात्रियों की ओर देख रहा था। उसके मन में भी तीर्थ यात्रा जाने की इच्छा थी, लेकिन धनाभाव के कारण वह किसी से कह न सका कि वे उसे भी तीर्थ यात्रा के लिए ले जाएं।
जब सब लोग प्रस्थान कर गए तो वह अपनी बेबसी पर बड़ा निराश हुआ। तभी वहीं से गुजर रहे एक सन्त ने उसकी उदासी कारण पूछा। वह बोला ‘‘मेरे पास भी यदि तन और धन की सामथ्र्य होती तो मैं आज मैं भी तीर्थ यात्रा को चला गया होता?’’
संत-‘‘कोई बात नहीं! अडसठ तीरथ हिरदे भीतर कोई बिरला नहायो’’। परेशान होने की जरूरत नहीं है। यदि तुम यात्रा पर नहीं जा सके तो क्या हुआ? सारे तीर्थ तो मन के अंदर है। यदि तुमने इस तीर्थ में विचरण कर लिया तो मानो तुमन सारे धर्मस्थलों के दर्शन कर लिए।
यह बोधकथा मुझे बहुत कुछ सिखा गई। आज समयाभाव के कारण हम तीर्थ स्थल तो नहीं जा सकते, लेकिन मन के तीर्थ का सुख तो भोग सकते हैं न?

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